Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंः देवदास--4


देवदास

भाग-4

यह केवल उस दिन हुआ। दूसरे दिन पार्वती भोर से ही देव दादा के लिए बेचैन हो रही थी, लेकिन देवदास नही आया। वह पिता के साथ पास के गांव मे निमंत्रण मे गया हुआ था। देवदास जब नही आया तो पार्वती उदासीन मन से घर से बाहर निकली। कल ताल मे उतरने के समय देवदास ने पार्वती को तन रुपये रखने के लिए दिये थे कि कही खो न जाएं। उन तीनो रुपयो को उसने आंचल की छोर मे बांध लिया था। उसने आंचल को हिरा-फिराकर और स्वयं इधर-उधर घूमकर कई क्षण बिताए। कोई संगी-साथी नही मिला, क्योकि उस समय प्रातःकाल की पाठशाला थी। पार्वती तब दूसरे गांव मे गई।

वहां मनोरमा का मकान था। मनोरमा पाठशाला मे पढ़ती थी, उसकी उम्र कुछ बड़ी थी। परंतु वह पार्वती की सखी थी। बहुत दिनो से आपस मे भेट नही हुई थी। आज पार्वती ने अवकाश पा उसके घर पर जाकर पुकारा-‘मनो घर मे है?’

‘पत्तो?’

‘हां-मनो कहां है बुआ?’

‘वह पाठशाला गई है-तुम नही जाती?’

‘मै पाठशाला नही जाती, देव दादा भी नही जाते।’

मनोरमा की बुआ ने हंसकर कहा-‘तब तो अच्छा है, तुम भी पाठशाला नही जाती और देव दादा भी नही।’

‘नही, हम लोग कोई नही जाते।’

‘अच्छी बात है, पर मनो पाठशाला गई है।’

बुआ ने बैठने के लिए कहा, पर वह बैठी नही, लौट आयी। रास्ते मे रसिकपाल की दुकान के पास तीन वैष्णवी तिलक-मुदा लगाये, हाथ मे खंजड़ी लिये भिक्षा मांग रही थी। पार्वती ने उन्हे बुलाकर कहा - ‘ओ वैष्णवी तुम लोग गाना जानती हो?’

एक ने फिरकर देखा और कहा - ‘जानती हूं, क्या है बेटी?’

‘तब गाओ!’ तीनो खड़ी हो गयी। एक ने कहा - ‘ऐसे कैसे गाना होगा, भिक्षा देनी होगी। चलो तुम्हारे घर पर चलकर गायेगे।’

‘नही, यही गाओ।’

‘पैसा देना होगा!’

पार्वती ने अपना आंचल दिखाकर कहा - ‘पैसा नही रुपया है।’

आंचल मे बंधा रुपया देखकर वे लोग दुकान से कुछ दूर पर जाकर बैठी। फिर खंजड़ी बजाकर, गले से गला मिलाकर तीनो ने गाना गाया। क्या गाया, उसका अर्थ था, यह सब पार्वती ने कुछ भी नही समझा। इच्छा करने पर भी वह नही समझ सकती थी। लेकिन उसी क्षण उसका मन देव दादा के पास खिंच गया।

गाना समाप्त करके एक वैष्णवी ने कहा - ‘क्या अब भिक्षा दोगी, बेटी?’

पार्वती ने आंचल की गांठ खोलकर उन लोगो को तीनो रुपये दे दिये। तीनो आवक्‌ होकर उसके मुख की ओर कुछ क्षण देखती रही।

एक ने कहा - ‘किसका रुपया है, बेटी?’

‘देव दादा का।’

‘वे तुम्हे मारेगे नही?’

पार्वती ने थोड़ा सोचकर कहा - ‘नही।’

एक ने कहा - ‘जीती रहो।’

पार्वती ने हंसकर कहा - ‘तुम तीनो जने का ठीक-ठीक हिस्सा लग गया न?’

तीनो ने सिर हिलाकर कहा - ‘हां, मिल गया। राधारानी तुम्हारा भला करें।’ यह कहकर उन लोगो ने आंतरिक कामना की कि इस दानशीलता छोटी कन्या को कोई दंड-भोग न करना पड़े। पार्वती उस दिन जल्दी ही मकान लौटी। दूसरे दिन प्रातःकाल देवदास से उसकी भेट हुई। उसके हाथ मे एक परेता था, पर गुड्‌डी नही थी, वह खरीदनी होगी। पार्वती से कहा - ‘पत्तो रुपया दो!’

पार्वती ने सिर झुकाकर कहा - ‘रुपया नही है।’

‘क्या हुआ?’

‘वैष्णवी को दे दिया, उन लोगो ने गाना गया था।’

‘सब दे दिया?’

‘हां। सब तीन ही रुपये तो थे!’

‘दुर पगली, क्या सब दे देना था?’

‘वाह! वे लोग जो तीन जनी थी, तीन रुपये न देती तो तीनो का कैसे ठीक हिस्सा लगता?’

देवदास ने गंभीर होकर कहा - ‘मै होता तो दो रुपये से ज्यादा न देता।’ यह कहकर उसने परेता की मुठिया से मिट्टी के ऊपर चिन्हाटी खीचते-खीचते कहा - ‘ऐसा होने से उनमे प्रत्येक को दस आना, तेरह गंडा एक कौड़ी का हिस्सा पड़ता।’

पार्वती ने इबारती तक सवाल सीखे है। पार्वती की इस बात से प्रसन्न होकर कहा - ‘यह ठीक है।’

पार्वती ने देवदास का हाथ पकड़कर कहा - मैने सोचा था कि तुम मुझे मारोगे देव दादा!’

देवदास ने विस्मित होकर कहा - ‘मारूंगा क्यो?’

‘वैष्णवी लोगो ने कहा था कि तुम मारोगे।’

यह बात सुनकर देवदास ने खूब प्रसन्न हो पार्वती के कंधे पर भार देकर कहा - ‘दुर! कभी अपराध करने से क्या मे मारता हूं?’

देवदास ने संभवतः मन मे सोचा था कि पार्वती का यह काम उसके पीनल कोड के अंतर्गत नही है, क्योकि तीन रुपये तीन आदमियो के बीच ठीक-ठीक तकसीम कर दिये। विशेषतः जिन वैष्णवी लोगो ने पाठशाला मे इबारती सवाल नही पढ़ा है, उन्हे तीन रुपये के बदले दो रुपये देना उनके प्रति भारी अत्याचार करना था। फिर वह पार्वती का हाथ पकड़कर छोटे बाजार की ओर गुड्डी खरीदने के लिए चला गया। परेता को वही एक झाड़ी मे छिपा दिया।

इसी तरह एक वर्ष कट गया, किंतु अब और नही कटना चाहता। देवदास की माता ने शोर-गुल मचाया।

स्वामी को बुलाकर कहा ‘कि देवा तो एकदम मूर्ख हरवाहा हो गया, इसका कोई बहुत जल्द उपाय करो।’

उन्होने सोचकर कहा - ‘देवा को कलकत्ता जाने दो। नगेन्द्र के घर रहकर वह खूब अच्छी तरह लिख-पढ़ सकेगा।’

नगेन्द्र बाबू संबंध मे देवदास के मामा है। यह बात सबने सुनी। पार्वती यह सुनकर बहुत चिंतित हुई। देवदास को अकेले मे पाकर उसका हाथ पकड़कर हिलाते-हिलाते पूछा - ‘देव दादा, क्या अब तुम कलकत्ता जाओगे?’


‘किसने कहा?’

‘बड़े चाचा कहते थे।’

‘नही, मै किसी तरह नही जाऊंगा।’

‘और अगर जबरदस्ती भेजेगे?’

‘जबरदस्ती!’

इस समय देवदास ने अपने मुख का भाव ऐसा बनाया, जिससे पार्वती अच्छी तरह समझ गई कि उससे इस पृथ्वी-भर मे कोई जबरदस्ती से काम नही करा सकता। यही तो वह चाहती भी थी। अस्तु, बड़े आनंद के साथ एक बार और उसका हाथ पकड़कर इधर-उधर हिलाया और उसके मुंह की ओर देखकर कहा - ‘देखो कभी मत जाना, देव दादा!’

‘कभी नही।’

किन्तु उसकी यह प्रतिज्ञा नही रही। उसके माता-पिता ने उसे डांट डपटकर और मार-पीटकर धर्मदास के साथ कलकत्ता भेज दिया। जाने के दिन देवदास के हृदय मे बड़ा दुख हुआ। नये स्थान मे जाने के लिए उसे कुछ भी कौतुहल और आनंद नही हुआ। पार्वती उस दिन उसे किसी तरह छोड़ना नही चाहती थी। कितना ही रोई, परंतु इसे कौन सुनता है। पहले अभिमान मे कुछ देर तक देवदास से बातचीत नही की; लेकिन अंत मे जब देवदास ने बुलाकर उससे कहा - ‘पत्तो, मै जल्दी ही लौट आऊंगा; अगर न आने देगे तो भाग आऊंगा।’ तब पार्वती ने संभलकर अपने हृदय की अनेक आंतरिक बाते देवदास को कह सुनायी। इसके बाद घोड़ा-गाड़ी पर चढ़कर, पौर्टमॉन्टो लेकर, माता का आशीर्वाद और आंखो का जल बिंदु कपाल पर टीके की भांति लगाकर वह चला गया उस समय पार्वती को बहुत कष्ट हुआ; आंखो से कितनी ही जल धराएं गालो पर बहकर नीचे गिरी। उसका हृदय अभिमान से फटने लगा।





पहले कितने ही दिन उसके ऐसे कटे। इसके बाद एक दिन प्रातःकाल उठकर उसने सोचा कि सारे दिन उसके पास कोई काम करने को नही है, इसके पहले पाठशाला छोड़ने के बाद प्रातःकाल से संध्या तक झूठ-मूठ ही खेल-कूद मे कट जाता था; कितने ही काम उसे करने को रहते थे, किंतु समय नही मिलता था। पर अब सारे दिन यो ही पड़ी रहती है, एक काम भी खोजने पर नही मिलता। प्रातःकाल उठकर किसी दिन चिट्ठी लिखने बैठी-दस बज गए। माता झुंझला उठी, पितामही ने सुनकर कहा - ‘उसे लिखने दो। सुबह इधर-उधर न दौड़कर लिखते-पढ़ते रहना अच्छा है।’

जिस दिन देवदास का पत्र आता, वह पार्वती के लिए बड़े सुख का दिन होता है। सीढ़ी की देहली ऊपर बैठकर वही कागज हाथ मे लेकर सारे दिन पढ़ती रहती है। इसी भांति दो महीने बीत गये। पत्र लिखना अथवा पाना अब उतना जल्दी-जल्दी नही होता, उत्साह भी कुछ कम हो गया।

एक दिन प्रातःकाल पार्वती ने माता से कहा - ‘मां, मै फिर पाठशाला जाऊंगी।’

‘क्यो?’

पार्वती पहले कुछ विस्मित हुई, फिर सिर हिलाकर बोली - ‘मै जरूर जाऊंगी।’

‘तो जा, पाठशाला जाने से मैने कभी तुझे रोका तो नही है।’

उसी दिन दोपहर मे पार्वती ने दासी का हाथ पकड़कर, बहुत दिन से छोड़ी हुई स्लेट और पेसिल को ढूंढकर बाहर निकाला और उसी पुराने स्थान पर शांत एवं गंभीर भाव से जा बैठी।

दासी ने कहा - ‘गुरु जी, पत्तो को अब मारना नही, यह अपनी इच्छा से पढ़ने आई है, जब तक इसकी इच्छा होगी पढ़ेगी और जब इच्छा न होगी, घर चली जायेगी।’

गुरुजी ने मन-ही-मन कहा, तथास्तु! प्रकट मे कहा - ‘यही होगा।’

एक बार ऐसी इच्छा हुई कि पूछे कि पार्वती कलकत्ता क्यो नही भेजी गयी? किंतु यह बात नही पूछी। पार्वती ने देखा कि उसी स्थान पर और उसी बेच पर छात्र-सरदार भूलो बैठा है। उसे देखकर पहले एक बार हंसी आयी, लेकिन दूसरे ही क्षण आंखो मे आंसू डबडबा आये। फिर उसे भूलो के ऊपर क्रोध आया। मन मे सोचा कि केवल उसी ने देवदास को घर से बाहर किया। इस तरह से बहुत दिन बीत गए।

बहुत दिनो के बाद देवदास मकान पर लौटा। जल्दी से पार्वती के पास आया, नाना प्रकार ही बातचीत हुर्इं। उसे अधिक बातचीत नही करनी थी - थी भी तो वह कर नही सकी। परंतु देवदास ने बहुत सी बाते कहीं। प्रायः सभी कलकत्ता की बाते थी। गर्मी की छुट्टी बीत गई, देवदास फिर कलकत्ता गया। इस बार भी रोना धोना हुआ, परंतु पिछली बार-सी उसमे वह गंभीरता नही थी। इस तरह चार वर्ष बीत गये।

इन कई वर्षों मे देवदास के स्वभाव मे इतना परिवर्तन हुआ, जिसे देखकर पार्वती ने कई बार छिपे-छिपे आंसू गिराये। इसके पहले देवदास मे जो ग्रामीण दोष थे, वे शहर मे रहने से एकबारगी दूर हो गये।

अब उसे डासन शू , अच्छा सा कोट, पैट, टाई, छड़ी, सोने की चेन और घड़ी, गोल्डन फ्रेम का चश्मा आदि के न होने से बड़ी लज्जा लगती है। गांव की नदी के तीर पर घूमना अब उसे अच्छा नही लगता और बदले मे हाथ मे बंदूक लेकर शिकार खेलने मे विशेष आनंद मिलता है। छोटी मछली पकड़ने के बजाय बड़ी मछलियो के फंसाने की इच्छा है। यही क्यो - सामाजिक बात, राजनीतिक चर्चा, सभासमिति, क्रिकेट, फुटबाल आदि की आलोचनाएं होती है। हाय रे! कहां वह पार्वती वह उन लोगो का ताल - सोनापुर गांव! बाल्यकाल की दो-एक सुख की बातो का भी स्मरण न आता हो - ऐसा नही;

किंतु अनेक प्रकार के कार्यभार के कारण वे बाते बहुत देर तक हृदय मे जगह नही पाती। फिर गर्मी की छुट्टी हुई। पिछले वर्ष की गर्मी की छुट्टी मे देवदास विदेश घूमने चला गया था, घर नही गया था। इस बार माता-पिता के बहुत आग्रह करने पर और अनेको पत्र लिखने पर अपनी इच्छा न रहते हुए भी देवदास बिस्तर बांधकर सोनापुर गांव के लिए हावड़ा स्टेशन पर आया। जिस दिन वह घर आया उस दिन उसका शरीर कुछ अस्वस्थ था, तभी से बाहर नही निकला। दूसरे दिन पार्वती के घर पर आकर बुलाया -

‘चाची!’

पार्वती की माता ने आदर के साथ कहा - ‘आओ बेटा यहां आकर बैठो।’

चाची के साथ कुछ क्षण बातचीत करने पर पूछा - ‘पत्तो कहां है, चाची?’

‘वही ऊपर वाली कोठरी मे है।’

देवदास ने ऊपर जाकर देखा कि पार्वती संझाबती दे रही है। बुलाया - ‘पत्तो!’

पहले पार्वती चमत्कृत हो उठी, फिर प्रणाम करके बगल मे हटाकर खड़ी हो गई।

‘यह क्या होता है, पत्तो?’

इस बात के कहने की आवश्यकता नही थी, इसी से पार्वती चुप रही। फिर देवदास ने लजाकर कहा - ‘जाता हूं, संध्या हो गयी, शरीर अच्छा नही है।’

देवदास चला गया।

पार्वती ने इस साल तेरहवे वर्ष मे पांव रखा है - दादी यह कहती है। इसी उम्र में शारीरिक सौदर्य अकस्मात मानो कही से आकर किशोरी से सर्वांग को छा लेता है। आत्मीय स्वजन सहसा एक दिन चमत्कृत होकर देखते है कि उनकी छोटी कन्या अब बड़ी हो गई है। उसके विवाह की तब छटपटी पड़ती है। चक्रवर्ती महाशय के घर मे आज कई दिनो से इन्ही सब बातो की चर्चा हो रही है। माता इसके लिए बड़ी चिंतित हो रही थी, बात-बात मे वह पति को सुनाकर कहती कि अब पत्तो को अधिक दिन तक अविवाहित रखना उचित नही है। वे लोग बड़े आदमी नही है; उन लोगो को एकमात्र यही भरोसा है कि कन्या अनुपम सुंदरी है। संसार मे यदि रूप की प्रतिष्ठा है तो पार्वती के लिए अधिक चिंता न करनी पडे़ेगी और भी एक बात हे, जिसे यही पर कह देना उचित है। चक्रवर्ती परिवार को कन्या के विवाह के लिए आज तक कोई विशेष चिंता नही करनी पड़ी है; हां पुत्र के विवाह के लिए अवश्य करनी पड़ती है। कन्या के विवाह मे दहेज ग्रहण करते थे, पुत्र के विवाह मे दहेज देकर कन्या घर ले आते थे। किंतु नीलकंठ स्वयं इस प्रथा को बहुत घृणा से देखते थे। उनकी यह तनिक भी इच्छा नही थी कि कन्या को बेचकर धनोपार्जन करे। पार्वती की मां इस बात को जानती थी; इसी से कन्या के विवाह हो। उसे यह स्वह्रश्वन मे भी विश्वास नही होता था कि मेरी यह आशा दुराशा मात्र है। वह सोचती थी कि देवदास से अनुरोध करने पर कोई रास्ता निकल आएगा। संभवतः यही सोचकर नीलकंठ की माता ने देवदास की मां से इस प्रकार यह चर्चा छेड़ी- ‘आहा! बहूू, देवदास और मेरी पत्तो मे जैसा स्नेह है, वह ढूंढे से भी कही नही मिल सकता।’

देवदास की मां ने कहा - ‘भला ऐसा क्यो न होगा चाची, वे दोनो भाई-बहिन की तरह पलकर इतने बड़े हुए है।’

‘हां बहू, यह मै भी समझती हूं। देखो न, जब देवदास कलकत्ता गया था तो पत्तो सिर्फ आठ बरस की थी, पर सी अवस्था मे वह उसकी चिंता करते-करते सूखकर कांटा हो गयी। देवदास की यदि कभी एक भी चिट्ठी आती थी, तो वह उसे बड़े चाव से दिन-रात बारम्बार पढ़ा करती थी। यह हम लोग अच्छी तरह जानती है।’

देवदास की मां ने मन-ही-मन सब-कुछ समझ लिया था। थोड़ी मुस्करायी। उस मुस्कराहट मे कितने छुपे हुए भाव गुंथे थे, वह मै नही कह सकता, किन्तु वेदना बहुत थी। वे सभी बाते जानती थी, साथ ही पार्वती को ह्रश्वयार भी करती थी। किंतु वह कन्याओ के बेचने और खरीदने वाले घर की लड़की थी, फिर घर के पास ही कुटुंब था। अतएव ऐसे के साथ विवाह संबंध होना ठीक नही था। उसने कहा -

‘चाची, वे इतनी छोटी उम्र मे लड़के का ब्याह नही करेगे; खासकर पढ़ने लिखने के दिनो मे। इसी से वे मुझसे कहते थे कि बड़े लड़के द्विजदास का बचपन मे ब्याह कर देने से बड़ी हानि हुई। लिखनापढ ़ना एकबारगी छूट गया।’

पार्वती की दादी का मुख्य यह सुनकर बिलकुल उतर गया। लेकिन फिर भी कहा-‘यह तो मै भी जानती हूं बहू, लेकिन क्या तुम यह नही जानती कि पत्तो अब बड़ी हुई! उसके देह की गठन भी लम्बी है, इसी से यदि नारायण इस बात को...।’

देवदास की मां ने बात काटकर कहा-‘नही चाची, मै यह बात उनसे नही कह सकूंगी। तुम्ही कहो मै किस मुंह से इस वक्त उनसे यह बात कहूं?’

यह बात यही समाप्त हो गयी। परन्तु स्त्रियो के पेट मे भला कभी बात पचती है! जब स्वामी भोजन करने के लिए बैठे, तो देवदास की मां ने कहा-‘पार्वती की दादी उसके ब्याह की बातचीत करती थी।’

स्वामी ने मुंह ऊपर उठाकर कहा-‘हां, अब पार्वती भी इस योग्य हो गयी है, अब उसका विवाह कर देना ही उचित है।’

‘यही तो आज वह कह रही थी कि अगर देवदास ने साथ उसका...।’

स्वामी ने भौ चढ़ाकर कहा-‘तो तुमने क्या कहा?’

‘मै क्या कहती? दोनो मे बड़ा स्नेह है; पर इसी से क्या कन्या के बेचने-खरीदने वाले चक्रवर्ती घराने की लड़की लाऊंगी? फिर घर के पास ही घर ठहरा। छिः! छिः!

स्वामी ने सन्तुष्ट होकर कहा-‘ठीक है, क्या घराने का नाम हंसाऊंगा? इन सब बातो पर कान नही देना।’

गृहिणी ने एक सूखी हंसी हंसकर कहा-‘नही, मै इन सब बातो पर कान नही देती। पर तुम भी यह मत भूल जाना।’

स्वामी ने गम्भीर मुख से बात का कौर उठाते हुए कहा-‘ऐसा होता तो इतनी बड़ी जमीदारी कभी की फुंक गयी होती।’

जब वैवाहिक प्रस्ताव के अस्वीकृति की बात नीलकंठ के कानो मे पहुंची, तो उन्होने मां को बुलाकर बड़े तिरस्कार के साथ कहा-‘मां, तुम क्यो ऐसी बात कहने गयी?’

मां चुप रही। नीलकंठ ने कहा-‘कन्या के ब्याह के लिए हम लोग किसी के पांव नहीं पड़ते, बल्कि कितने ही लोग हम लोगो के पांव पड़ते है। मेरी लड़की कुरूपा नही है! देखो, तुम लोगो से कहे देता हूं कि एक हफ्ते के भीतर ही सम्बन्ध ठीक कर लूंगा। ब्याह के लिए क्या सोच करना!’

किन्तु जिसके लिए पिता ने इतनी बड़ी बात कही थी; उससे उसके सिर पर बिजली-सी गिरी।

लड़कपन ही से यही धारणा थी कि देवदास पर एकमात्र उसी का अधिकार है। अधिकार किसी ने उसके हाथ मे सौपा हो, यह बात नही थी। पहले स्वयं भी इसे अच्छी तरह समझ नही सकी, अनजाने मे ही उसके अधीर मन से दिनो-दिन इस अधिकार को अति नीरवता एवं दृढ़ता के साथ अपनाकर प्रतिष्ठित किया था। अब तक यद्यपि उसका बाहरी रूप आंखो से वह नही देख सकी, तथापि आज उसको बेहाथ होते देखकर उसके सारे हृदय मे एक भारी तूफान-सा उठने लगा।

किन्तु देवरदास के सम्बन्ध मे यह बात कहना ठीक नही। लड़कपन में पार्वती के ऊपर जो दखल पाया था, उसका उसने पूर्ण रूप से उपभोग किया। परन्तु कलकत्ता जाकर काम-काज की भीड़ और अन्याय और आमोद-प्रमोद मे फंसकर वह पार्वती को बहुत-कुछ भूल गया। लेकिन वह यह नहीं जानता कि पार्वती अपने उसी अपरिवर्तित ग्राम्य-जीवन मे निश-दिन केवल उसी का ध्यान किया करती है। केवल इतना ही नही, उसने यह स्वह्रश्वन मे भी नही सोचा था कि बाल्य-काल से जिसे हर तरह से अपना जाना, एवं सब सुख-दुख मे जिसका बराबर साथ दिया, यौवन की पहली सीढ़ी पर पांव रखते ही उसे इस तरह फिसलना पड़ेगा। किन्तु उस समय विवाह की बात कौन सोचता था? कौन जानता था कि किशोर-बन्धन विवाह-बन्धन के बिना किसी तरह चिर-स्थायी नहीं रह सकता। ‘इसीलिए विवाह नही हो सकता’ यह सम्वाद उसकी सारी आशा-पिपासा को छिन्न-भिन्न करने के लिए उसके हृदय से खीचातानी करने लगा। देवदास का प्रातःकाल का समय पढ़ने-लिखने मे बीतता है। दोपहर मे बड़ी गरमी पड़ती है, घर से बाहर निकलना कठिन है, केवल सांयकाल में यदि इच्छा होती तो व बाहर हवा खाने के लिए जाया करता है। इस समय किसी दिन वह धोती-कुरता और एक अच्छा-सा जूता पहनकर, हाथ में छड़ी लेकर टहलने के लिए निकलता। जाते समय वह चक्रवर्ती के मकान के नीचे से होकर जाता था। पार्वती ऊपर बंगले से आंसू पोछती हुई उसे देखती थी। कितनी ही बाते उसके मन मे उठती थी। मन मे उठता था कि दोनो बड़े हुए। बहुत दिन परदेस मे रहने के कारण दोनो एक-दूसरे से बड़ी लज्जा करते है। देवदास उस दिन इसी तरह चला गया, लज्जा के कारण इच्छा रहते हुए भी वह कोई बात नही कर सका। यह बात पार्वती भी समझने से नही चूकी।

देवदास भी प्रायः इसी भांति सोचता था। बीच-बीच मे उसके साथ बातचीत करने और देखने के लिए इच्छा भी होती थी, किन्तु साथ ही यह भी ख्याल होता था कि क्या यह अच्छा दीखेगा?

यहां कलकत्ता का वह कोलाहल नही है, वह आमोद-प्रमोद, थियेटर और गाना-बजाना नही है।

इसीलिए उसे केवल उसके बचपन की बाते याद आती है। मन में प्रश्न उठता था कि क्या यह पार्वती वही पार्वती है? पार्वती मन में सोचती कि क्या यह देवदास बाबू वही देवदास है? देवदास अब प्रायः

चक्रवर्ती के मकान की ओर नही जाता। किसी दिन वह आंगन में खड़ा होकर बुलाता-‘छोटी चाची, क्या करती हो?’

छोटी चाची कहती है-‘यहां आकर बैठो।’

देवदास कहता-‘नही, रहने दो चाची, मै थोड़ा घूमने जा रहा हूँ।’

पार्वती किसी दिन ऊपर रहती और किसी दिन देवदास के सामने पड़ जाती थी। वह जब छोटी चाची के साथ बातचीत करने लगता, तो पार्वती धीरे से खिसक जाती थी। सायंकाल के बाद देवदास के घर मे दीया जलता था। ग्रीष्म काल की खुली हुई खिड़की से पार्वती बहुत देर तक उसी ओर देखा करती थी, किन्तु सिवा उस दीप-प्रकाश के और कुछ नही देख पाती थी। पार्वती सदा से आत्माभिमानी है।

वह जो यन्त्रणा सहन कर रही है, उसके तिल-मात्र की भी किसी को थाह न देने की उसकी आन्तरिक चेष्टा रहती है। और फिर किसी से कहने-सुनने मे लाभ ही क्या? सहानुभूति सहन नही हो सकती; और तिरस्कार लांछना! इससे तो मर जाना ही अच्छा है। पिछले वर्ष मनोरमा का विवाह हुआ, किन्तु वह ससुराल नही गयी। इसी से बीच-बीच मे वह पार्वती से मिलने आ जाया करती थी। पहले दोनो सखियो मे ये सभी बाते घुल-घुलकर होती थी, पर अब वह बात नही है। पार्वती उसका साथ नही देती। वह या तो ऐसी बातो के छिड़ने पर चुप ही रहती है या टालमटोल कर जाती है।

पार्वती के पिता कल रात घर लौटे। इधर कई दिनो से वह वर ढूंढने गये थे। अब विवाह की सब बातचीत पक्की करके घर लौटे है। प्रायः बीस-पच्चीस कोस की दूरी पर बर्दवान जिला के हाथीपोता गांव के जमीदार के साथ विवाह का होना स्थिर कर आये है। उसकी आर्थिक दशा अच्छी है, उम्र चालीस वर्ष से कुछ कम ही है। गत वर्ष पहली स्त्री का स्वर्गवास हुआ है, इसीलिए दूसरा विवाह कर रहे है। इस समाचार से कुटुम्बियो मे किसी को आनन्द नही हुआ, वरन्‌ दुख ही पहुंचा। फिर भी भुवन चौधरी से सब मिलाकर दो-तीन हजार रुपये की प्राप्ति थी, इसी से सब स्त्रियां चुप हो रही।

एक दिन दोपहर के समय जब देवदास चौके मे भोजन करने को बैठा, तो मां ने पास बैठकर कहा‘पत्तो का विवाह है।’

देवदास ने मुंह उठाकर पूछा-कब?

‘इसी महीन मे। कल वर खुद आकर कन्या को देख गया है।’

देवदास ने कुछ विस्मित होकर कहा-‘क्या, मै तो कुछ नही जानता मां!’

‘तुम कैसे जानोगे? वर दुहेजू है-अवस्था कुछ अधिक है, पर घर का धनी है। पत्तो खाने-पीने से सुखी रहेगी।’

देवदास गर्दन नीची कर भोजन करने लगा। उसकी मां ने फिर कहना आरम्भ किया-‘उन लोगो की इच्छा थी कि इसी घर मे ब्याह हो।’

देवदास ने मुंह उठाकर कहा-‘फिर?’ मां ने कहा-‘छिः! ऐसा कभी हो सकता है? एक तो वे लोग कन्या बेचने-खरीदने वाले, दूसरे, घर के पड़ोस मे; फिर ऐसे छोटे घराने मे! छिःछिः!’ यह कहकर मां ने ओठ सिकोड़ा। देवदास ने भी इसे देखा।

कुछ देर चुप रहने के बाद मां ने फिर कहा-‘तुम्हारे बाबूजी से भी मैने कहा था।’

देवदास ने पूछा-‘बाबूजी ने क्या कहा?’

‘और क्या कहेगे? यही कहा कि क्या इतने बड़े वंश का सिर नीचा करेगे।’

देवदास ने फिर कोई बात नही पूछी। इसी दिन दोपहर मे मनोरमा और पार्वती की बातचीत हुई।

पार्वती की आंखो में जल देखकर मनोरमा की आंखे भी डबडबा आयी। उसने उन्हे पोछकर पूछा-‘तब कौन-सा उपाय है बहिन?’

पार्वती ने आंखे पोछकर कहा-‘क्या तुमने अपने वर को पसन्द करके विवाह किया था?’

‘मेरी बात दूसरी है। मुझे पसन्द भी नही था और नापसन्द भी नहीं है, इसी से मुझे कोई कष्ट भी नही है। पर तुम अपने पांव मे आप कुठार मारती हो, बहिन!’

पार्वती ने जवाब नही दिया, वह मन-ही-मन कुछ सोचने लगी।

मनोरमा कुछ सोचकर हंसी। पूछा-‘पत्तो, वर की उम्र क्या है?’

‘किसके वर ही?’

‘तुम्हारे!’

पार्वती ने हंसकर कहा-‘सम्भवतः उन्नीस।’

मनोरमा ने विस्मित होकर कहा-‘यह क्या मैने तो सुना है कि चालीस?’

इस बार भी पार्वती ने हंसकर कहा-‘मनो बहिन, कितने आदमियो की उम्र उन्नीस-बीस वर्ष की है, मै क्या सबका हिसाब रखती हूँ? मेरे वर ही उम्र उन्नीस-बीस वर्ष की है-यह मैं जानती हूं।’

उसके मुंह की ओर देखकर मनोरमा ने फिर पूछा-‘क्या नाम है?’

‘सो तो तुम जानती ही हो।’

‘मै कैसे जानूंगी?’

‘तुम नही जानती? अच्छा लो, मै कह देती हूं।’

जरा हंसकर गम्भीरता के साथ पार्वती ने उसके कान के पास अपना मुंह लगाकर कहा-‘नही जानती-श्री देवदास!’

मनोरमा पहले तो चमक उठी। फिर थोड़ा धक्का देकर कहा-‘इस ठट्ठे से काम नही चलेगा। यह कहो कि नाम क्या है? अगर नही कह सकती हो तो...।

‘वही तो मैने कहा।’

मनोरमा ने पूछा-‘यदि देवदास नाम है तो फिर इतना रोती क्यो हो?’

पार्वती का चेहरा सहसा उतर गया। कुछ सोचने के बाद उसने कहा-‘यह ठीक है; अब मै नही रोऊंगी।’

‘पत्तो!’

‘क्यो?’

‘सब बाते खोलकर क्यों नही कहती बहिन, मै कुछ भी नही समझ पाती हूं।’

पार्वती ने कहा-‘जो कुछ कहना था, सभी तो मैने कह दिया।’

‘परन्तु कुछ भी तो समझ में नहीं आता।’

‘न आता होगा।’ यह कहकर पार्वती दूसरी ओर देखने लगी।

मनोरमा ने सोचा कि पार्वती बात छिपाती है, उसकी कुछ कहने की इच्छा नही है। उसे बड़ा गुस्सा आया, दुखित होकर उसने कहा-‘पत्तो, जिसमे तुम्हे दुख है, उसमे मुझे भी दुख है। तुम सुखी रहो यही मेरी आन्तरिक प्रार्थना रहती है। यदि तुम किसी से कोई बात न कहना चाहती हो तो मन कहो, किन्तु इस तरह ठढा करना ठीक नही है।’

पार्वती ने दुखित होकर कहा-‘ठट्टा नहीं करती हूं बहिन, जितना मै जानती हूं उतना तुम्हे बता दिया है। मै यही जानती हूं कि मेरे स्वामी का नाम श्री देवदास है। उम्र उन्नीस या बीस वर्ष है, यही बात तुमसे भी कही है।’

‘किन्तु मैने तो सुना है कि तुम्हारा सम्बन्ध दूसरे से स्थिर हुआ है?’

‘स्थिर और क्या होगा? दादा का तो अब किसी के साथ ब्याह होगा नही होगा तो मेरे साथ न, मैने तो ऐसी कोई खबर नही सुनी है।’

मनोरमा ने जो कुछ सुना था, वह कहने लगी। पार्वती ने बाधा देकर कहा -‘यह सब मैने भी सुना है।’

‘तब क्या देवदास तुमको...?’

‘क्या मुझको?’

मनोरमा ने हंसी दबाकर कहा-‘तब जान पड़ता है, स्वयंबर हुआ है! छिपे-छिपे सब बातचीत पक्की हो गयी है!’

‘कच्ची-पक्की यहां कुछ नही हुई है।’

मनोरमा ने व्यथित स्वर मे कहा-‘तू क्या कहती है, पत्तो कुछ भी समझ मे नहीं आता।’

पार्वती ने कहा-‘तब देवदास से पूछकर मै तुमको समझा दूंगी।’

‘क्या पूछोगी? वह तुमसे ब्याह करेगे कि नही?’

पार्वती ने सिर हिलाकर कहा-‘हां, यही।’

मनोरमा ने बड़े आश्चर्य के साथ पूछा-‘क्या कहती हो पत्तो, क्या तुम स्वयं पूछोगी?’

‘इसमे क्या दोष है, बहिन?’

मनोरमा अवाक्‌ हो गयी, बोली-‘क्या कहती हो? स्वयं?’

‘हां, स्वयं नहीं तो और मेरी ओर से कौन पूछेगा?’

‘लाज नहीं लगेगी?’

‘लाज क्यो लगेगी? तुमसे कहने मे क्या मैने लज्जा की है?’

‘मै स्त्री हूं-तुम्हारी सखी हूं-किन्तु वे तो पुरुष है, पत्तो!’

इस पर पर्वती हंस पड़ी; कहा-‘तुम सखी हो, तुम अपनी हो, किन्तु वे क्या दूसरे है? जो बात तुमसे कह सकती हूं, क्या वही बात उनसे नही कह सकती?’

मनोरमा अवाक्‌ होकर उसके मुंह की ओर देखने लगी।

पार्वती ने हंसकर कहा-‘मनो बहिन, तुम झूठ ही माथे मे सिन्दूर पहनती हो। यह भी नही जानती कि किसको स्वामी कहते है। वे मेरे स्वामी न होने पर भी मेरी लज्जा के स्वामी है। उनसे ऐसा करने के पहले ही मै मर न जाऊंगी! इसे छोड़, जो मनुष्य मरने पर उतारू है, क्या वह यह देखता है कि विष कड़वा है या मीठा। उनसे मेरा कोई भी परदा नही है।’

मनोरमा उसके मुंह की ओर देखती रही। कुछ देर बाद पूछा-‘उनसे क्या कहोगी? यह कहोगी कि मुझे अपने चरणो मे स्थान दो?’

पार्वती ने सिर हिलाकर कहा-‘ठीक यही कहूंगी, बहिन?’

‘और यदि वे स्थान न दे?’

इसके बाद पार्वती कुछ देर तक चुप रही, फिर कहा-‘उस समय की बात नहीं जानती।’

घर लौटते समय मनोरमा ने मन-ही-मन सोचा, धन्य साहस, धन्य हृदय-बल! यदि मै मर भी जाऊं तो भी यह बात मुंह से कभी निकाल नहीं सकती।

बात सत्य है। इसी से तो पार्वती ने कहा कि यह माथे में सिन्दूर और हाथ मे चूड़ी पहनना व्यर्थ है।

लगभग एक बजे रात का समय है, तब भी मलिन ज्योत्स्ना आकाश के अंग से लिपटी हुई है। पार्वती चादर से सिर से पैर तक अपने अंग को ढककर दबे पाँच सीढ़ी से नीचे उतर आयी। चारो ओर आंख खोलकर देखा-कोई जाग तो नहीं रहा है। फिर दरवाजा खोलकर नीरव-पथ में आकर खड़ी हुई। गांव का मार्ग एकदम निस्तब्ध, एकदम निर्जन था-किसी से भेट होने की आशंका नही थी। वह बिना किसी रूकावट के जमीदार के मकान के सामने आकर खड़ी हुई। ड्‌योढ़ी पर वृद्ध दरबान कृष्णसिंह खाट बिछा, तुलसीकृत रामायण पड़ रहे थे। पार्वती को प्रवेश करते देखकर उसने नेत्र नीचे किये ही पूछा-‘कौन है?’

पार्वती ने कहा-‘मै।’

दरबानजी ने समझा कि कोई स्त्री है। दासी समझकर फिर कोई प्रश्न नही किया और गा-गाकर रामायण पढ़ने मे निमग्न हो गये। पार्वती चली गयी। गरमी के कारण बाहरी आंगन मे कई नौकर सो रहे थे; उनमे से कितने ही पूर्ण-निद्रित और कितने ही अर्द्ध-जाग्रत थे। नीद की झोक मे एकाध ने पार्वती को जाते देखा, लेकिन दासी समझकर किसी ने कुछ रोक-टोक नही की। पार्वती निर्विध्न सीढ़ी से होकर ऊपर कोठे पर चली गयी। इस घर का एक-एक कमरा और एक-एक कोना उसका जाना हुआ था। देवदास के कमरे को पहचानने मे उसे जरा भी देर नही लगी। किवाड़ खुला हुआ था और भीतर एक दीपक जल रहा था। पार्वती ने भीतर आकर देखा, देवदास पलंग पर सो रहे है। सिर के पास उस समय भी एक पुस्तक खुली पड़ी थी, इससे जान पड़ता है कि वह अभी ही सोये है। दिये की टेम को तेज कर चुपचाप देवदास के पांव के पास आकर बैठ गयी। केवल दीवाल पर टंगी हुुई घड़ी ‘टन-टन’ शब्द करती है; इसे छोड़कर सभी सो रहे है, सभी जगह सन्नाटा छाया हुआ है। पांव के ऊपर हाथ रखकर पार्वती ने धीरे से कहा-‘देव दादा...!’

देवदास ने नीद की झोक में सुना कि कोई उसे बुला रहा है। उसने उसी तरह लेटे हुए बिना आंख खोले कहा-‘हूं!’

‘देव दादा!’

इस बार देवदास आंख मीचते हुए उठ बैठे। पार्वती के मुंह पर घूंघट नही था, घर मे दीपक तीव्र ज्योति से जल रहा था, देवदास ने सहज ही पहचान लिया। किन्तु फिर भी उसे पहले विश्वास नही

हुआ। पूछा-‘यह क्या, पत्तो?’

देवदास ने घड़ी की ओर देखा। विस्मय पर विस्मय बढ़ता गया-‘इतनी रात मे!’

पार्वती ने कोई उत्तर नही दिया। वह मुंह नीचे किये बैठे रही। देवदास ने फिर पूछा-‘इतनी रात मे क्या घर से अकेली आयी हो?’

पार्वती ने कहा-‘हां।’

देवदास ने उद्विग्न, आशंकित और कलंकित होकर पूछा-‘कहो, क्या रास्ते मे डर भी नही मालूम हुआ?’

पार्वती ने मीठी हंसी हंसकर कहा-‘मुझे भूत का भय नहीं लगता।’

‘भूत का भय नही करती, तो आदमी का भय तो करती हो; क्यो आयी?’

पार्वती ने कोई उत्तर नही दिया, किन्तु मन-ही-मन कहा कि इस समय मुझे उसका भी डर नही है।

‘मकान मे कैसे आई? क्या किसी ने देखा नही?’

‘दरबान ने देखा है।’

देवदास ने आंख फाड़कर देखा कहा- ‘दरबान ने देखा’ ‘और किसी ने?

‘आंगन मे नौकर लोग सो रहे थे, शायद उनमे से किसी ने देखा हो।’

देवदास ने बिछौना से कूदकर किवाड़ बंद कर दिये-‘किसी ने पहचाना भी?’

पार्वती ने कोई भी उत्कंठा प्रकट न की। सहज भाव से उत्तर दिया- ‘वे सभी लोग मुझे जानते है,

शायद किसी ने पहचाना हो।’

‘क्या कहती हो? ऐसा काम क्यो किया, पत्तो?’

पार्वती ने मन ही मन कहा कि यह तुम किसी तरह समझ सकते हो? किंतु प्रकट मे कुछ नही कहा‘माथा नबाये बैठी रही।’

‘इतनी रात मे-छिः! छि! कल तुम कौन -सा मुंह दिखाओगी?’

पार्वती ने मुंह नीचे किए हुए ही कहा-‘वह साहस मुझमे है।’

देवदास ने क्रोध नही किया, किंतु बड़ी उत्कंठा से कहा-‘छिः! छिः! अब भी क्या तुम लड़की हो?

यहां पर इस तरह आते हुए क्या तुम्हे कुछ लज्जा मालूम नही हुई।’

पार्वती ने सिर हिलाकर कहा-‘कुछ भी नही!’

‘क्या लज्जा से तुम्हारा सिर नीच न होगा?’

यह प्रश्न सुनकर पार्वती ने तीव्र किंतु करुण-दृष्टि से देवदास के मुख की ओर कुछ क्षण देखकर निस्संकोच होकर कहा-‘सिर तो तब नीचा होता, अगर मै यह अच्छी तरह से न जानती होती कि तुम मेरी सारी लज्जा को ढंक दोगे।’

देवदास ने विस्मित एवं हतबुद्धि होकर कहा-‘मैं! किंतु मै कैसे मुंह दिखा सकूंगा?’

पार्वती ने उसी भांति अविचलित कंठ से कहा-‘तुम? किंतु तुम्हारा क्या हो सकता है, देव दादा?’

थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने फिर कहा-‘तुम पुरुष हो! आज नही तो कल तुम्हारे कलंक की बात सब अवश्य भूल जायेगे। दो दिन के बाद किसी से इसका ध्यान भी नही रहेगा कि कब, किस रात मे हतभागिनी पार्वती सब-कुछ तुच्छ समझकर तुम्हारे पद-रज मे लीन होने आई थी।’

‘यह क्या पत्तो?’

‘और मैं?’

‘मंत्र-मुग्ध की भांति देवदास ने कहा-और तुम?’

‘मेरे कलंक की बात कहते हो? नही, मुझे कलंक नही लगेगा। तुम्हारे पास मै छिपे-छिपे आई, यदि यह कहकर मेरी निंदा होगी तो वह निंदा मुझे नही लग सकती।’

‘यह क्या पत्तो, रोती हो?’

‘देव दादा, नदी मे इतना जल भरा हुआ है! क्या इतने जल मे भी मेरा कलंक नही धुल सकता?’

‘सहसा देवदास ने पार्वती के दोनो हाथ्थ पकड़ लिये और कहा-पावर्ती!’

पार्वती ने देवदास के पांव के ऊपर सिर रखकर अवरुद्ध कंठ से कहा-‘यही पर थोड़ा सा स्थान दो, देव दादा!’

इसके बाद दोनो ही चुप रहे। देवदास के पांव पर से बहकर अनेको अश्रुकण शुभ्र-शैया को भिगोने लगे।

बहुत देर के बाद देवदास ने पार्वती के मुख को ऊपर उठाकर कहा-‘पत्तो, क्या मुझे छोड़कर तुम्हे और कोई उपाय नही है?’

पार्वती ने कुछ नही कहा। उसी भांति पांव पर सिर रखे हुए पड़ी रही। निस्तब्धता के भीतर एकमात्र वही लंबी-लंबी उसासे भर रही थी। टन-टन करके घड़ी मे दो बज गये। देवदास ने कहा-‘पत्तो!’

पार्वती ने रुद्ध कंठ से कहा-‘क्या?’

‘पिता-माता बिलकुल सहमत नही है-यह सुना है?’ पार्वती ने सिर हिलाकर जवाब दिया-‘सुना है।’

फिर दोनो चुप रहे। बहुत देर बाद देवदास ने दीर्घ निःश्वास फेककर कहा-‘तब फिर?’

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